Monday 8 September 2014

आत्मज्ञान


एक अकेला तू ही है, और डगर बस तेरी है,
कही पे चुभती धूप है तो, कही पे छाव घनेरी है,
जब सब कुछ बस मे तेरे है, फिर पग क्यो तेरे ठहरे है,
हर राह खुली उस पार है पर, इस ओर नजर पे पहरे है,
तू धूल पलक से परे हटा, और खुद को फिर पहचान जरा,
एक ताल ठोक तू धरती पे, और फिर खुद को ललकार जरा,
झगझोर के अपने तन मन को, जिन्दा है तू बतला खुद को,
मोहताज नही तू औरों का, सम्पूर्ण है तू बतला खुद को,
जिस दिन जीवन के शीशें मे, तू आँख मिलायेगा खुद से,           
बस शक्ल वहाँ तेरी होगी, और प्रश्न उठायेगा खुद से,
ना कोई वहाँ साथी होगा, ना प्रेम बद्ध माला होगी,
ना रिश्तों का साया होगा, और ना समाज धारा होगी,
हर एक फैसले का तेरे बस तू ही जिम्मदार है सुन,
तू तन्हा अपनी राह पे है, जी चाहे जितने बन्धन बुन,
हर हार जीत का ऋण तुझको, बस खुद को चुकता करना है,
हर सही गलत बस तेरा है, और तुझको ही तय करना है,
रिश्ते बस यहाँ छलावें है,एक अनदेखी पाबंदी है,
ख्वाब दिखा कर बडे बडे, ये करते घेरा बंदी है,
हर बंधन तेरा तोड दे तू, फिर देख जो ख्वाब सुनहरे है,
इस ओर भी राहें है मुमकिन, और रोशन यहाँ सबेरे है|

Saturday 7 June 2014

भोर हो...

मनुष्य उठ प्रज्वल्ल हो,
मशाल बन ज्वलंत हो,
अन्धकार चीरने,सूर्य रोज उगता,
फिजूल मोह त्याग कर,जो खुद जलो तो भोर हो,

सो रहा जहान है, दोनो आँख खोल के,
मुँह फेरता है आदमी, हजार लफ्ज बोल के,
आसान तीर छोडना,काँधों पे रख के और के,
उठा कमान हाँथ मे,जो खुद लडो तो भोर हो,

मुख पे एक सवाल है, सवाल पे सवाल है,
मिल गये जबाब तो, जबाब पे बबाल है,
उंगलिया उठा रहें, दुसरों की आन पे,
पाप अपने बैठ के, गिनों कभी तो भोर हो,

युँ तो है स्वनंत्र हम, बंधे है पर दिमाग से,
दर्द अपना है जुडा, बढी किसी की शान से,
हर कोइ आज जी रहा, औरों के पैर खीच के,
हाँथों मे हाँथ थाम के, जीओ कभी तो भोर हो,

Monday 7 April 2014

गरीब की झोली

बेबस गरीब की झोली, आधी भरी कि आधी पोली,
खून पसीने से तर तर, दुख: भरे आँसुओं से बोझिल
कुछ टुकडे सूखी रोटी के, कुछ नून की ढेली तितर बितर,
एक कोना जिसका छिना हुआ, रिस रहा जहाँ से खाली पन,
है रंग भी जिसका उडा हुआ, फेकी हुई लगती है उतरन,
बाहर से मटमैली सी,और कालिक भी है जमी हुई,
पर उसके अंदर मेहनत की पूरी मेहफिल है सजी हुई,
है नजर किसी की खुशियों पे,रख दौलत कई तिजोरी मे,
वो मस्त चाल मे बहता है,उसकी तो दुनिया झोली मे,
सुबह से लेकर शाम तलक,वो झोली उसकी साथी है,
और रोज रात सर के नीचे,तकिये का काम निभाती है,
बीवी की खुशियाँ है झोली,बच्चों की आशा है झोली,
दिन भर भी कुछ ना पा पाये, तो एक दिलासा है झोली,
जो झाँको उसमे अंदर तो, बेबस का अंतर है झोली,
जो खुल के गर वो बिखर गई,आश्कों का समुंदर है झोली.