उदित हुआ तु शून्य से, शून्य पर ही सार है,
शून्य ही आग़ाज़ है, शून्य ही विस्तार है ,
शुरु हुआ तु शून्य से,उस से ही प्रबल हुआ,
ढल के विशाल रूप से, शून्य में सिमट गया,
एक एक बिंदु से,विराट सा खड़ा हुआ,
जोड़ कर कड़ी कड़ी,बूँद से बड़ा हुआ,
चक्र में मढ़ा गया ,अनंत जीव काल के,
हाथ पैर मार कर,फँसता गया इस जाल में,
भरसक प्रहार हो गये, प्रयास क्षीड़ हो गये,
व्यूह तोड़ने चले,व्यूह के ही हो गये,
अनेक वार थे किये,अनेक ख़्वाब को लिये,
न सोच पाये बात ये, की भाग दौड़ किस लिये,
कुछ छोड़ दे इस धरा पर, मन में ना ये ग़ौर था,
भर ले हज़ार मुठ्ठियाँ, हवस भरा वो दौर था,
खींच लाया वक्त है,फिसल रही उस रेत पर,
लिखे जहाँ हिसाब है, ज़िन्दगी की स्लेट पर,
रिश्ते जहाँ फ़िज़ूल है,बाते जहाँ फ़िज़ूल है,
दिन जहाँ फ़िज़ूल है, राते जहाँ फ़िज़ूल है,
ख़ुशियाँ जहाँ फ़िज़ूल हैं, ग़म जहाँ फ़िज़ूल है,
तुम जहाँ फ़िज़ूल हो, हम जहाँ फ़िज़ूल है,
पैसे की यहाँ बात है, न धर्म की ललकार है,
सब कुछ यहाँ शून्य है,बस कर्म की पुकार है,
सफ़र यहाँ खतम हुआ, मोह का ये अंत है,
तड़प रहा जो जीव था,व्यूह से स्वतंत्र है,
टूट कर कड़ी कड़ी,फिर शून्य में मिल जाना है,
छोड़कर इस जिस्म को ,शून्य ही बन जाना है।
~आरोही