Wednesday 28 March 2018

शून्य

उदित हुआ तु शून्य से, शून्य पर ही सार है,
शून्य ही आग़ाज़ है, शून्य ही विस्तार है ,
शुरु हुआ तु शून्य से,उस से ही प्रबल हुआ,
ढल के विशाल रूप से, शून्य में सिमट गया,
एक एक बिंदु से,विराट सा खड़ा हुआ,
जोड़ कर कड़ी कड़ी,बूँद से बड़ा हुआ,
चक्र में मढ़ा गया ,अनंत जीव काल के,
हाथ पैर मार कर,फँसता गया इस जाल में,
भरसक  प्रहार हो गये, प्रयास क्षीड़ हो गये,
व्यूह तोड़ने चले,व्यूह के ही हो गये,
अनेक वार थे किये,अनेक ख़्वाब को लिये,
सोच पाये बात ये, की भाग दौड़ किस लिये,
कुछ छोड़ दे इस धरा पर, मन में ना ये ग़ौर था,
भर ले हज़ार मुठ्ठियाँ, हवस भरा वो दौर था,
खींच लाया वक्त है,फिसल रही उस रेत पर,
लिखे जहाँ हिसाब है, ज़िन्दगी की स्लेट पर,
रिश्ते जहाँ फ़िज़ूल है,बाते जहाँ फ़िज़ूल है,
दिन जहाँ फ़िज़ूल है, राते जहाँ फ़िज़ूल है,
ख़ुशियाँ जहाँ फ़िज़ूल हैं, ग़म जहाँ फ़िज़ूल है,
तुम जहाँ फ़िज़ूल हो, हम जहाँ फ़िज़ूल है,
पैसे की यहाँ बात है, धर्म की ललकार है,
सब कुछ यहाँ शून्य है,बस कर्म की पुकार है,
सफ़र यहाँ खतम हुआ, मोह का ये अंत है,
तड़प रहा जो जीव था,व्यूह से स्वतंत्र है,
टूट कर कड़ी कड़ी,फिर शून्य में मिल जाना है,
 छोड़कर इस  जिस्म को ,शून्य ही बन जाना है।

~आरोही









दुर्गा

स्वागत मे तेरे ,लोगों ने फिर दरवाज़ा खोला है,
एक देवी कोख मे मार गिरा,तेरा जयकारा बोला है,
पर तेरे भी बस मे क्या है,तू भी तो आख़िर भोली है,
तेरे भी गिन कर कुछ ही दिन,तेरी भी छुट्टी होनी है,
जहाँ इन्सानों की क़दर नहीं ,वहाँ इश्वर का भी मान कहाँ,
जो जीवित को पत्थर मान लिया ,फिर पत्थर मे भगवान कहाँ,
ये दो पल्लो के चहरे है,कुछ बातें कुछ है काम किया,
हर एक फूल पर माँग रखी ,भक्ती का उसको नाम दिया,
बड़ी बड़ी मूरत रख कर,नौ दिन तेरा श्रंगार करे,
थाली मे सिक्के भर भर कर, ये तेरा भी व्यापार करे,
जब हर लड़की मे दुर्गा है,तो तुझसे इतना लाड़ क्यों है,
ये प्यार नहीं डर है शायद,तू शक्ती की पहचान जो है,
तू केवल एक एहसास ही है,फिर भी तुझसे घबराते हैं,
और पूर्ण रूप एक ताकत को,निर्भय हो मार गिराते हैं,
गर सच मे श्रद्धा भाव है तू,तो बाक़ी शक्लें बंजर क्यूँ ,
जब हर औरत मे तू ही है,तो आँचल पर उनके,ख़ंजर क्यूँ,
पता नहीं तू है कि नहीं,और ना ही हो तो अच्छा है,
ये कोइ नहीं ये इन्सान है,थोड़ा लगाम का कच्चा है,
हवस को अपनी टपकाने,मर्ज़ी की इसे दरकार नहीं,

कभी बहक गया भोला कोइ,लग जाये ना तुझपर दाग कहीं,

जंग

दहाड़ भर के इनसानियत रोती रही,
मौत हँसती रही ,जाने खोती रही,
बूढ़े बच्चे जवाँ सब फ़ना हो गये,
दुआएँ तकिये लगा कर के सोती रहीं,
एक नन्हा सा पौधा परेशान है,
हुइ है क्या ख़ता इस से अनजान है,
सर से आँचल को, उसके क्यों छींना गया?
हर चहरे मे दिखता क्यों हैवान है,
उसकी आँखों मे डर की जो तस्वीर है,
क़त्ल होते हुए कल की ताबीर है,
घुट रही ज़िन्दगी ,लव्ज़ ख़ामोश हैं,
सुन के चीख़ें भी,आवाम बेहोश है,
बस्तियाँ जल गयी ,घर बसर छिन गये,
खूँ कि नदियाँ बही,जिस्म यूँ बिछ गये,
भस्म कितने हुए ,किसको मालूम हुआ,
साँस लेने को अब है धुआँ ही धुँआ ,
एक इन्सान से़,जंग इन्सान की,
नाश दोनो तरफ़ ,जंग किस बात की ,
ख़ूबसूरत सी दुनिया का अरमान था,
क्रूर कब हो गया ,तू तो वरदान था,
शोक करती रही ,एसे परिणाम पर,
सृष्टि रोती रही तेरे अभिशाप पर
हर दिशा मौन है ,और खुदा झुक गये,
क्या बना डाला ये ,क्यों नहीं रुक गये,
क्यों नहीं रुक गये,


~आरोही