Wednesday, 22 March 2017

डर

उड़ता हुआ परिंदा जब,गिरने से ना भय खाता है,
सीमा पर खड़ा सिपाही जब, ना मरने से घबराता है,
खेतों में खिलती फ़सलें जब, बेख़ौफ़ युँही बिछ जाती हैं,
जब पतली सी टहनी पर चिड़िया,निर्भय हो नीड़ बनाती,
मस्त चाल में जब नदियाँ ,लाँघ किनारे जाती है,
और भूल के अपना मीठापन,जा सागर में मिल जाती है,
जब अंबर अपने तारों को, बिन आँसू के बिखरा देता है,
जब वृक्ष सदी से खड़े हुए,बिन सोचे हमको फल देता,
बिन पूछे अपना घर आँगन,जब छोड़ के वो आ जाती है,
और अंजानी उस दुनिया में,सबकुछ अपना कर जाती है ,
फिर तू किस बात से डरता है? किस भय ने तुझको बाँध रखा,
क्यों बेमतलब इस ताक़त ने, तुझपे है निशाना साध रखा,
ये ग़ैर नहीं,ये तेरा है, तूने ही इसका अंश रचा,
कुछ जीवन तो तु गवाँ चुका,अब कुछ ही है जो शेष बचा,
तोड़ दे इसके हर बल को,उठ के न तुझे मिल पाये कभी,
तेरे ही भीतर से जन्मा है ,लिख दे तु इसका नाश अभी,

~आरोही

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