Sunday 28 July 2013

असमंजस


असमंजस मे बैठ के जब तू, खुद से प्रश्न उठायेगा,
रूह से खुद की चुप्पी का, एक सन्नाटा सा पायेगा,
ना भाग सकेगा जीवन से, ना मंजिल तय कर पायेगा,
जब सुन्दर स्वर्णिम सा सपना, हर तरह बिगडता जायेगा,
हर राह मे काँटे होंगे और, हर खुशी गलत मुड जायेगी,
जीने से ज्यादा मरने की, जब चाहत तुझे लुभायेगी,
जब राह मे बस तू ही होगा, चहुँ ओर तेरी छाया होगी,
तू ही तेरा दुश्मन होगा, और जंग तेरी खुद से होगी,
फिर देख मजा उस बाजी का, जब तू खुद का प्रतिरोधी हो,
जब हार जीत के अंतर का, तीजा ना कोइ विरोधी हो,
जिस दिन खुद पर काबू पाकर, ये  चक्रव्यूह तू भेदेगा,
और धूल भरे उन प्रश्नों की, परतों को पुनः खुरेदेगा,
तब सभी जटिलता  प्रश्नों की, अपने आप सरल हो जायेगी,
फिर सूरत धूमिल ख्याबो की, कुछ और सवर सी जायेगी,
चाह तेरी क्या हैं खुद से, तू साफ साफ सुन पायेगा,
जिस तरफ उठायेगा पग को, उस ओर रास्ते पायेगा,
फिर असमंजस मे बैठ के जब तू, खुद से प्रश्न उठायेगा,
तब उत्सुकता मे जीने की, तू वक्त सिमिटता पायेगा, तू वक्त सिमिटता पायेगा,