एक दौर वो भी था जब वो घुट-घुट कर जी लेती थी,
लाज बचाने को घर की अपमान कई सह लेती थी,
मार पती की प्यार समझ कई रात युहीं कट जाती थी,
सास के तानों को सुनकर माँ याद उसे भी आती थी,
बस चुप रहकर सब दुख सहना माँ उससे बोला करती थी,
उसके एक सम्मान को ले वो सबकुछ झेला करती थी,
सबकी खुशियों को धर्म मान गम के घूँट कई पी लेती थी,
एक दौर वो भी था जब वो घुट-घुट कर जी लेती थी,
नख से लेकर शीश तलक सब गिरवी मे चढ़ जाता था,
नखरों मे बीता वो बचपन तब याद ज़रा हो आता था,
जो तस्वीर बनी थी जीवन की कई टुकड़ो मे हो जाती थी,
सीने पर पोंहची ठेस पे जब वो होंठो को सी जाती थी,
कुछ बोल पड़े न लब उसके डर सा बैठा रहता था,
कुछ सुधरेंगे हालात कभी मन खुद से कहता रहता था,
कुछ आँखों से बह जाते थे कुछ खुद से वो कह लेती थी,
एक दौर वो भी था जब वो घुट-घुट कर जी लेती थी,