Monday 16 September 2013

सार




पंचतत्व से बना, तू आज क्यो निराश है,
गूँज रहा हर तरफ, ये तेरा अट्हास है,
क्यों रुक रहा, तु थम रहा, क्या जीव तेरा मर गया?
वो देख पिछडे कायरो का, कफिला निकल गया,
तु हो खडा तु बढ जरा, ना खुद का सर्वनाश कर,
खुद ही खुद को मार कर, तु ऐसे विनाश कर,
तेरे जैसे कई यहाँ, आये और गुजर गये,
जो अंत तक टिके रहे, वो महके और सँवर गये,
रगड रगड के उम्र भर, वो स्वर्ण से दमक गये,
कदम अभी उठे ही थे, की तुम अभी से थक गये?
मखमली ये चदरे, तु राह से उधेड दे,
अपने पैरों के निशान, तु वक्त पे उकेर दे,
मनुष्य है मनुष्य तू, सत्य का तू ज्ञान कर,
वक्त कुछ ही शेष है, इस पे भी विचार कर,
रण मे कर्म युध्द के, जो हाँथ कई छूट गये,
व्यर्थ वक्त मत गवाँ, ना ध्या उन्हें जो रूठ गये,
रखे हर एक को सुखी, ये तेरा लक्ष है नहीं,
चमक रहा जो आँख मे, ध्यान बस लगा वहीं,
जो कर सका ये फैसला, तो जिंदगी का सार है,
नही तो अंत तक तेरे, सफर मे ही विकार है,
सफर मे ही विकार है...

No comments:

Post a Comment