Saturday 7 June 2014

भोर हो...

मनुष्य उठ प्रज्वल्ल हो,
मशाल बन ज्वलंत हो,
अन्धकार चीरने,सूर्य रोज उगता,
फिजूल मोह त्याग कर,जो खुद जलो तो भोर हो,

सो रहा जहान है, दोनो आँख खोल के,
मुँह फेरता है आदमी, हजार लफ्ज बोल के,
आसान तीर छोडना,काँधों पे रख के और के,
उठा कमान हाँथ मे,जो खुद लडो तो भोर हो,

मुख पे एक सवाल है, सवाल पे सवाल है,
मिल गये जबाब तो, जबाब पे बबाल है,
उंगलिया उठा रहें, दुसरों की आन पे,
पाप अपने बैठ के, गिनों कभी तो भोर हो,

युँ तो है स्वनंत्र हम, बंधे है पर दिमाग से,
दर्द अपना है जुडा, बढी किसी की शान से,
हर कोइ आज जी रहा, औरों के पैर खीच के,
हाँथों मे हाँथ थाम के, जीओ कभी तो भोर हो,

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