Tuesday 17 March 2015

सवेरा


आ लौट चलें उस बचपन मे जब रोज सवेरा होता था,
हर पहर को जब हम जीते थे ,और रात को सोना होता था,
जहाँ एक संतरे की गोली, आँसू को थामे रखती थी,
पतंग,गेंद, गिल्ली डंडा , बल्ले का खिलोना होता था,
आ लौट .....

जब रंग रूप की फिकर ना थी, तपते सूरज के ताप तले,
माँ के लाख बुलने पर जब घर को आना होता था,
कभी दर्द चोट का रहता, था कभी दूध मे हल्दी होती थी,
जब बारिश कि बुँदो के नीचे, कई बार नाहना होता था,
आ लौट.....

हर सुबह सुनहरी होती थी, जब रात को माँ की थपकी थी,
ना भूख कभी लग पाई थी, तैयार निवाल होता था,
हर गलती की माफी थी, और मार से बढकर साजा ना थी,
बस आँख मे आँसू आते थे , जब यारों से बिछुड्ना होता था
आ लौट चलें उस बचपन मे जब रोज सवेरा होता था,
हर पहर को जब हम जीते थे और रात को सोना होता था|
-आरोही

3 comments: