Saturday 3 September 2016

प्रकृति

अपने कमरे की खिड़की से,
बँधे पेड़ ,हवाये बादल देखे,
सहमी सी बारिश गुमराह परिंदे देखे,
इन्सानियत से मजबूर,हताश और चूर-चूर,
खामोश और सबकी सोच से दूर,
कौन समझ पायेगा,इनकी सज़ा हम ही है,
प्रलय और विनाश की वजह हम ही है,
बहती हुइ नदी के जो किनारे बाँध दे,
तनो की मोटाइ को,जो बेखौफ काट दे,
उड़ान को पिंजरे मे कैद कर,
तीर जो प्रकृती पर साध दे,
अपने जन्म के अस्तित्व को दूषित कर,
भगवान को दोष लगाये वो हम ही हैं,
कुछ यहाँ बेवजह नही है, हँसी और आँसू सब सही है,
आज जो रो-रो कर काट रहे, कुछ समय पहले बोया था ,ये बीज वही है,
स्वार्थ की पट्टी से  आँख मूंद कर,
अपने भविष्य के लिये राख बोते, हाँथ हम ही हैं,

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