Thursday 17 August 2017

सुबह फिर आयेगी

रात भी ढल जायेगी,सुबह फिर से आयेगी,
अंधेरा चीर के रख दे,वो लौ फिर जगमगायेगी,
क्यूँ रोता है, क्यूँ खोता है, यहाँ कुछ भी नहीं स्थिर,
सदा कुछ भी नही रहता,दर्द की बात क्या है फिर,
काफ़िर जिस्म है तेरा,तेरी बातें फसाना है,
तू कितना रोक ले ख़ुद को,अंत तुझको भी पाना है,
मंझिल के परे झाँको,तसल्ली घर जमाये है,
जिनमें पल रहा है तू,महज़ ये वासनाये है,
कुछ ऐसा कर फ़ना होकर भी,सबकी रूह में रह जा,
तुझे कोई भूल ना पाये,उन्हें ऐसी वजह दे जा,
तेरा मन ख़ुश नहीं होगा,डुबा के ख़ुद को जश्नों में,
तु फिर कुछ और ढूँड़ेगा,लालच की उन भस्मों में,
तुझे संतोष ना होगा,ये तुझको श्राप है ख़ुद का,
भटकता मन है मानुष का, नहीं कोई पार है सुख का,
सराहना सीख लेते तुम,तो बात कुछ और ही होती,
थोड़ा और मिल जाने की ,फिर वो आह होती,
सुख दुख के ये हिस्से, तो सब लोगों ने पाये है,
किसी की झोली में कुछ कम, किसी में ज़ादा आये है,
भाग्य को बाँध कर सर पे, तु अपना कर्म करता चल,
किसी को बाँट दे ख़ुशियाँ ,किसी के दर्द लेता चल,
सुकूँ से भर उठेगा तू,निशा ना फिर सतायेगी,
रौशनी सब दिशाओं की, तुझे अपना बतायेगी,
अंधेरा चीर के रख दे,वो लौ फिर जगमगायेगी,

वो लौ फिर जगमगायेगी...........................

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