Wednesday 28 March 2018

जंग

दहाड़ भर के इनसानियत रोती रही,
मौत हँसती रही ,जाने खोती रही,
बूढ़े बच्चे जवाँ सब फ़ना हो गये,
दुआएँ तकिये लगा कर के सोती रहीं,
एक नन्हा सा पौधा परेशान है,
हुइ है क्या ख़ता इस से अनजान है,
सर से आँचल को, उसके क्यों छींना गया?
हर चहरे मे दिखता क्यों हैवान है,
उसकी आँखों मे डर की जो तस्वीर है,
क़त्ल होते हुए कल की ताबीर है,
घुट रही ज़िन्दगी ,लव्ज़ ख़ामोश हैं,
सुन के चीख़ें भी,आवाम बेहोश है,
बस्तियाँ जल गयी ,घर बसर छिन गये,
खूँ कि नदियाँ बही,जिस्म यूँ बिछ गये,
भस्म कितने हुए ,किसको मालूम हुआ,
साँस लेने को अब है धुआँ ही धुँआ ,
एक इन्सान से़,जंग इन्सान की,
नाश दोनो तरफ़ ,जंग किस बात की ,
ख़ूबसूरत सी दुनिया का अरमान था,
क्रूर कब हो गया ,तू तो वरदान था,
शोक करती रही ,एसे परिणाम पर,
सृष्टि रोती रही तेरे अभिशाप पर
हर दिशा मौन है ,और खुदा झुक गये,
क्या बना डाला ये ,क्यों नहीं रुक गये,
क्यों नहीं रुक गये,


~आरोही

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