Tuesday 18 February 2014

दुपहरी

गर्मी की वो दुपहरी और पेड की वो छाँव
हर ओर फैली फसलें और शांत से वो गाँव
पत्तों से छन के धरती को चूमती सी धूप,
झुलसा के आम, सरसों झूमती सी धूप,
पेडो के नीचे थक कर, सोया हुआ किसान,
मदमस्त उस किसान को झकोरती सी धूप,
माथे पे उसके तप का हाथ फेर कर,
पसीने को उसके जिस्म से निचोडती सी धूप,

ईठलाती हुई नदी के सिमटे हुये किनारे,
दो बूँद को तरसती नलकूप की दरारें,
सर पे कभी कमर पे, ढोये गघरियों पे गघरी,
हर रोज धूल से सनी, नापती वो राहें,

छुप कर कहीं पर सब से, बच्चों का घर बनाना,
सारा दिन फुदकना, और थपकी पे नींद आना,
उन याद को सुनहरी, अब कैसे कोई जी ले,
रह गया वो बचपन खेल वो पुराना,

खामोशियों को छेडते गर्म वो थपेडे,
अलसाई सी जम्हाई अपनी बाँह मे समेटे,
कानों मे गुनगुनाये कई बात कुछ पुरानी,
मीलों की दूरी तकते, है आँखो मे नजारें,
कुछ ऐसे ही मंजर मे, रोज दिन का गुजर जाना,
है आज मुझे खलता, शहरों का पनप जाना,
कुछ तो कमी है मन को, करती जो अब है व्याकुल,
जीना है मुझको फिर से, बीता हुआ जमाना...

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